पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३६६

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(३३८) शिव नाग थे (देखो ११ और उसके आगे)। अब हमें यह देखना चाहिए कि विंध्यकों के आंध्र अधीनस्थ राजाओं में पहचान के ये पाँचों लक्षण कहाँ मिलते हैं, और हम कह सकते हैं कि ये पाँचों लक्षण पल्लवों में मिलते हैं । सन २५० ई० के लगभग तक आंध्र देश में पूर्वी समुद्र-तट पर अवश्य ही इक्ष्वाकु राजा राज्य करते थे और उन्हीं के सम-कालीन चुटु सातवाहन थे जो पश्चिमी समुद्र-तट पर राज्य करते थे। विंध्यशक्ति का समय सन २४८ (अथवा २४४ ) से २८८ ई० तक है। इस समय में हम देखते हैं कि पल्लवों ने इक्ष्वाकुओं और चुटुओं को दबाकर उनके स्थान पर अधिकार कर लिया था। पल्लवों ने जो दान किए थे और जो अभिलेख आदि सन ३०० ई० के लगभग अथवा उससे कुछ पहले' ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराए थे, उनमें वे अपने आपको भारद्वाज कहते हैं। और इस वंश के आगे के जो अभिलेख आदि मिलते हैं, उनसे यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है कि पल्लव लोग भारद्वाज गोत्र के थे। वे लोग द्रोणाचार्य और अश्व- स्थामा के वंश के भारद्वाज थे; और इसलिये वे लोग भी उसी ब्राह्मण गोत्र के थे जिसका विंध्यशक्ति था। उनके ताम्रलेखों में १. मिलायो कृष्णशास्त्री का यह मत--' शिवस्कंद वर्मन् और विजयस्कंद वर्मन् के प्राकृत भाषा के राजकीय घोषणापत्र यदि और पहले के नहीं हैं, तो कम से कम ईसवी चौथी शताब्दी के प्रारंभ के तो अवश्य ही है"। (एपिग्राफिया इंडिका, खंड १५, पृ. २४८ ) और उनके इस कथन से मैं पूर्ण रूप से सहमत हूँ। वह लिखावट नाग शैली की है जिनका दक्षिण भारत में पल्लवों ने पहले-पहल प्रचार किया था । अक्षरों के ऊपरी भाग यद्यपि सन्दूकनुमा या चौकोर नहीं हैं, परंतु फिर भी उन पर शीर्ष-रेखाएं अवश्य हैं ।