पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ३३६ ) उनकी भाषा प्राकृत या संस्कृत है, द्रविड़ नहीं है। अपने प्रारंभिक ताम्रलेखों में उन लोगों ने प्राकृत के जिस रूप का व्यवहार किया है, वह रूप उत्तरी भारत का है। थोड़े ही दिनों बाद अर्थात् तीसरी पीढ़ी में और नाग साम्राज्य का अंत होने के उपरांत तत्काल ही वे लोग संस्कृत का व्यवहार करने लगे थे, जिसकी शैली वाकाटकों की संस्कृत शैली ही है। साम्राज्य-भोगी वाका- टकों की भाँति वे लोग भी शैव थे। जैसा कि हम अभी ऊपर बतला चुके हैं, पल्लव-वंश के अभिलेखों में कहा गया है कि जब पल्लव वंश के मूल पुरुष का एक नाग राजकुमारी के साथ विवाह हुआ था, तब नाग सम्राट ने इस वंश के मूल पुरुष को राजा बना दिया था। विंध्यशक्ति के इन वंशजों के संबंध में, जो समुद्रगुप्त के समय तक आंध देश में राज्य करते थे, पुराणों में कहा गया है कि इनकी सात पीढ़ियों ने राज्य किया समुद्रगुप्त के समय तक के आरंभिक पल्लवों की सात पीढ़ियाँ हुई थीं (देखो ६१८३)। इस प्रकार पहचान के सभी लक्षण वाकाटकों की बातों से मिलते हैं। उन दोनों का गोत्र एक ही है और उनकी भाषा, धर्म, समय और संवत् और उनका नागों के अधीन होना आदि सभी बातें पूरी तरह से मिलती हैं। और पुराणों ने विंध्यक वंश की आंध्र-वाली शाखा के संबंध में जितनी पीढ़ियाँ बतलाई हैं, समुद्रगुप्त के समय तक पल्लवों की उतनी ही पीढ़ियाँ भी होती हैं । इस प्रकार इनकी पहचान के संबंध में संदेह होने का कुछ भी स्थान बाकी नहीं रह जाता । पल्लव लोग वाका- टकों की ही एक शाखा के थे। और जब वे लोग अपने अभिलेखों आदि में यह कहते हैं कि हम लोग द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा के वंशज हैं, तब वे मानों एक सत्य अनुश्रति का ही उल्लेख करते हैं। वाकाटक लोग भारद्वाज थे और इसलिये वे द्रोणाचार्य और था, और