पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३८१

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(३५३) मिलता है जो सिंहवर्मन् प्रथम के शासन-काल का है। उदयेंदिरम् वाले ताम्रलेखों ( एपि० इं०, ३, १४२ ) से यह बात भली भाँति सिद्ध की जा सकती थी कि सिंहवर्मन् प्रथम इस विष्णुगोप का बड़ा भाई था; परंतु अभाग्यवश मेरी सम्मति में उदादिरम् वाले प्लेट स्पष्ट रूप से बिलकुल जाली हैं, क्योंकि वे कई शताब्दी बाद की लिपि में लिखे हुए हैं। परंतु फिर भी युवराज विष्णुगोप के अभिलेख से भी हम इसी परिणाम पर पहुंचते हैं कि सिंह- वर्मन् इस विष्णुगोप का पुत्र नहीं था, बल्कि उसका बड़ा भाई था, और गंग ताम्रलेख (एपि०६०, १४, ३३१) से भी यही सिद्ध होता है, जिसमें यह कहा गया है कि सिंहवर्मन् प्रथम और उसके पुत्र स्कंदवर्मन् (तृतीय) ने क्रमशः लगातार दो गंग राजाओं को राजपद पर प्रतिष्ठित किया था (६१६०)। इसके अतिरिक्त विष्णुगोप के पुत्र सिंहवर्मन द्वितीय के भी दो दानपत्र मिलते हैं जिनमें वंशावली दी गई है (एपि० इ०, ८, १५६ और १५, २५४) । अब विष्णुगोप और उसके पुत्र के उल्लेखों तथा गंग ताम्रलेखों के अनुसार बाद की वंशावली इस प्रकार निश्चित होती है- स्कंदवर्मन् द्वितीय I सिंहवर्मन् प्रथम 1 स्कंदवर्मन् तृतीय विष्णुगोप ( युवराज) जिसका दानपत्र इं० 1 सिंहवर्मन् द्वितीय (एपि० इं० १५, २५४ और ८, १५६) २३