( ३६३ ) और कांची का उप-शासक था और इसलिये वीरकोर्च के दसवें वर्ष उसकी अवस्था कम से कम १८ या २० वर्ष की रही होगी। कांची पर आंध्र के राज-सिंहासन से अधिकार किया गया था। यह नहीं हो सकता कि जिस समय वीर-कोर्च का विवाह हुआ हो, उसी समय वह उप-शासक भी बना दिया गया हो; क्योंकि उसके शासन के दसवें वर्ष में शिव-स्कंद इतना बड़ा हो गया था कि वह कांची का गवर्नर होकर शासन करता था। अपने विवाह के समय वीरकोर्च कदाचित् “अधिराज' ही था और "महाराज" नहीं बना था और “महाराज" की उच्च पदवी उसे कांची पर विजय प्राप्त करने के उपरांत मिली होगी। यदि हम यह मान लें कि आंध्र पर सन २५०-२६० ई० में विजय प्राप्त हुई थी, तो कांची की विजय हम सन् २६५ ई. में रख सकते हैं। और "महाराज' के रूप में वीरकोर्च का दसवाँ वर्ष सन् २७५ ई० के लगभग होगा, जब कि शिवस्कंद २० वर्ष का हुआ होगा। यह आरंभिक तिथि ठीक है या नहीं, इसका निर्णय करने में हमें विष्णुगोप प्रथम की तिथि से बहुत कुछ सहारा मिल सकता है । अब हमें यह देखना है कि हमने उपर जो तिथि बतलाई है, वह विष्णुगोप प्रथम की तिथि को देखते हुए ठीक ठहरती है या नहीं। ६१८७. शिवस्कंदवर्मन् ने युव-महाराज रहने की दशा में जो दान किया था, यदि उसके पाँच वर्ष बाद वह सिंहासन पर बैठा हो अर्थात् २८० ई० में उसने राज्यारोहण किया हो और पंद्रह वर्षों तक शासन किया हो, तो उसका समय (सन २८०- २६५ ई०) उस समय से मेल खा जायगा जो उसके दान-लेखों की लिपि के आधार पर उसके लिये निश्चित किया गया है और जिसका ऊपर विवेचन किया गया है। वीरवर्मन् के समय
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