(३६१) डाला था। जब एक बार इन स्वतंत्र समाजों का अस्तित्व मिट गया, तब वह क्षेत्र भी नहीं रह गया, जिसमें आगे चलकर वीर देश-हितैषी और राजनीतिज्ञ उत्पन्न होते । स्वयं गुप्त लोग मातृपक्ष से भी और पितृ पक्ष से भी उन्हीं गणतंत्री समाजों के लोगों से उत्पन्न हुए थे। वे स्वयं उन्हीं बीज-समाजों की पैदावार थे परंतु उन्हीं बीज-समाजों का उन्होंने पूरा पूरा नाश कर डाला था। ६२११. गणतंत्री समाजों की सामाजिक व्यवस्था समानता के सिद्धांत पर आश्रित थी। उनमें जाति-पाँति का कोई बखेड़ा नहीं था। वे सब लोग एक ही जाति के थे। इसके विपरीत सना- तनी सामाजिक व्यवस्था अ-समानता और जाति-भेद पर आश्रित थी और इसीलिये जिस प्रकार मालवों, यौधेयों, मद्रकों, पुष्य- मित्रों, आभीरों और लिच्छवियों में बच्चा बच्चा तक देश-भक्त होता था, उसी प्रकार सनातनी सामाजिक व्यवस्था में समाज का हर आदमी कभी देश-भक्त हो ही नहीं सकता था। उक्त गण- तंत्री समाज मानों ऐसे अखाड़े थे जिनमें लोग राज्य-स्थापना, देश- हितैषिता, व्यक्तिगत उच्चाकांक्षा, योग्यता और नेतृत्व की बहुत अच्छी शिक्षा पाते और अभ्यास करते थे। परंतु समुद्रगुप्त और उसके उत्तराधिकारियों की अधीनता में वे सब लोग मिलकर एक संघटित राज्याश्रित और सनातनी वर्ण-व्यवस्था में लीन हो गए थे और एक ऐसी सनातनी राजनीतिक प्रणाली के आधीन हो गए थे, जिसमें एकछत्र शासन-प्रणाली और साम्राज्यवाद की ही मान्यता थी और उन्हीं की वृद्धि हो सकती थी। वह बीज-कोश ही सदा के लिये नष्ट हो गया था जो ऐसे कृष्ण को उत्पन्न कर सकता था जो धर्म-युद्ध और कर्त्तव्य-पालनवाले सिद्धांत के सबसे बड़े प्रवर्तक और पोषक थे; अथवा वह बीज-कोश ही नहीं रह
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