(६२) मत्तिल है। यह प्रांत अंतर्वेदी गंगा और यमुना के बीच के प्रदेश का पश्चिमी भाग कहा गया है, जहाँ एक अलग गवर्नर या शासक राज्य करता था; और इस बात का उल्लेख इंदौर के ताम्रलेखों में है जो सर्वनाग नाम के एक नाग शासक ने, जो समुद्रगुप्त का गवर्नर था, लिखवाए थे। नागदत्त, नागेसेन या मत्तिल अथवा उनके पूर्वजों ने अपने सिक्के नहीं चलाए थे और न भार-शिवों के समय में अहिच्छत्र के किसी और गवर्नर या शासक ने ही अपने सिक्के चलाए थे। अहिच्छत्र के अच्युत नामक एक शासक ने ही पहले पहल अपने सिक्के चलाए थे। सिक्कों पर तो उसका नाम अच्युत है और समुद्रगुप्त के शिलालेख में उसे अच्युतनंदी कहा गया है। पर उस समय वह वाकाटकों के अधीन था, जिससे यह सूचित होता है कि वाकाटकों ने कदाचित् लिच्छवियों और गुप्तों के मुकाबले में वहाँ कोशल (अवध प्रांत) के पास ही अपने एक करद राजवंश को प्रतिष्ठित कर दिया था। जहाँ तक भार-शिव राज्य का संबंध है हमें राज्य के केवल दो ही प्रघान केंद्र मिलते हैं-एक कांतिपुरी और दूसरा पद्मावती। वायु और ब्रह्मांड पुराण में चंपावती (भागलपुर) में भी एक केंद्र होने का उल्लेख है; पर जान पड़ता है कि वहाँ का केंद्र अधीनस्थ था, क्योंकि चंपावती के सिक्के नहीं मिलते। जैसा कि हम आगे चलकर बतलावेंगे (६ १३२, १४०), समुद्रगुप्त १. Indian Antiquary भाग १८, पृ० २८६ । २. G. I.पृ०६८। ३. नव नाकास् (नागास्) तु भोक्ष्यन्ति पुरीम् चम्पावती नृपाः । T. P.पृ० ५३ ।
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