पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भर दूसरा। दासी-"स्वामिनी इस दुख में भगवान ही सान्त्वना दे सकेंगे-सन्हीं का अवलम्ब है।" मल्सिफा--"एफ याप्त स्मरण हो आई सरला!" दासी-"क्या स्वामिनी ?" मल्लिका-~"सद्धर्म के सेनापति सारिपुत्र मौद्गलायन को कल मैं निमन्त्रण दे आई हूँ मो अाज भायेंगे। देख, मदि न हुआ हो सो भिजा का प्रवन्ध शीघ्र मार, आ शीघ्र जा (दासी माती है ) तथागत ! तुम धन्य हा सुम्हारे सपदेशों से हृदय निर्मल हो जाता है तुमने ससार को दुखमय यताया और उससे छूटने का पपाय भी सिखाया। कीट से लेकर इन्द्र सफ की ममता घोषित की। अपवित्रों को अपनाया-दुस्पियों को गले लगाया और अपनी दिन्य फरणा की वर्षा से विश्वको प्राप्लावित किया-अमिताभ तुम्हारी जय हो !" [सरला भाती है] मरना-"स्वामिनी । भिक्षा का प्रायोजन सब ठीक है। कोई चिन्ता नहीं, किन्तु " मल्लिफा-"फिन्तु नही--सरला 1 मैं भी व्यवहार को जानती हूँ, पर आविष्य-परम धर्म है। मैं भी नारी हैं, नारी के दय में जो हाहाकार होता है यह मैं अनुभव कर रही हूँ, शरीर की धमनियों खिंचने लगती है। जी रो पठता है, तय मी फन्य करना ही होगा। (सारिपुत्र और भाग्य का पीय)