पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/११८

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अजातशत्रु। प्रसेन-"देवी ! तुम्हारे उपकारों का वोम मुझे भसम हो। रहा है। तुम्हारी शीतलता ने इस जलते हुए लोहे पर विजय प्राप्त कर ली है। घार बार क्षमा माँगने पर भी इदय को सन्तोष नहीं होता । अव मैं श्रावस्तो जाने की आशा चाहता हूँ।" , ___ मल्लिका-"सम्राट् । क्या आपको मैंने बदी कर रखा है। यह फैसा प्रश्न १ घड़ी प्रसन्नता से आप जा सकते हैं। प्रसेन-नहीं, देवी ! इस दुरापारी के पैरों में तुम्हारे उप- कारों की वेडी और हाथों में क्षमा की हथकड़ी पड़ी है। जपतक सुम कोई आज्ञा देकर इसे मुक्त नहीं करोगी, यह चले जाने में असमर्थ है।" मल्लिका-"फारायण ! यह तुम्हारे सम्राट है-जाभो !'इन्हें रामधानी तक सफुशल पहुँचा' दो, मुझे तुम्हारे पाहुवल पर मरोसा है। प्रसेन०-"कौन कारायण ! सेनापति बन्धुल का भागिनेय !" फारायण-" हाँ श्रीमान् ! वही कारायण, अभिवादन फरता है।" प्रसेन-" फारायण । माता ने भाज्ञा दी है तुम मुझे कल पहुँचा दोगे ! देखो जननी फी यह मूर्वि । विपद में यच्चे की सरह जिसने मेरी सेवा की है क्या तुम इसमें भक्ति करते हो। यदि तुमने इन दिव्य परणों की भक्ति पाई तो तुम्हारा जीवन धन्य है।" (मस्त्रिका का पैर पकड़ता है) ४