पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/११९

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अह दूसरा। मल्लिका-" उठिये सम्राट् ! उठिये । मादा मग करने का आपको भी अधिकार नहीं है।" प्रसेनः- यदि आशा हो तो मैं दीर्घफारायण को अपना सेनापति यनाऊँ और इसी पीर वक्षस्थल में स्वर्गीय सेनापति पम्धुल की प्रतिकृति देखकर अपने कुकर्म का प्रायश्चित करूं। देवी ! मैं स्वीकार करता हूँ कि महात्मा पन्धुल के साथ मैने घोर अन्याय किया है। और आपने मुझे एक मी कटु वाक्य न कह कर उसका फठोर दण्ट दिया है, य म इसकी बड़ी बाला है। पकवार देवी! एक अभिशाप दे दो, जिसमें नरफ की जाला शान्त हो जाय और पापी प्राण निकलने में मुख पायें। मलिका-"अवीत के वन-कठोर-सदय पर जो कुटिल रेना- चित्र सिंघ गये हैं वे क्या फभी मिटेंगे ? यदि भापकी इच्छा है सो पर्तमान में कुछ रमणीय सुन्दर चित्र स्वाचिये, जो भविष्य में सम्पल होकर दर्शकों के हृदय को शान्ति हैं। दूसरों को सुखी फरफे मुख्य पाने का अभ्यास कीजिये । प्रसेनजित-"प्रापका आशीर्वाद सफल हो, चलो कारायण (दोनों नमस्कार करके नाते हैं। प्रभात का सबेरा ) । मस्तिका--(प्रार्थना फरवी है) अधीर न हो चिप विश्व-मोह-माज में || मह वेदमा विलोन पीचि का समुद्र है। है दु:स का मेवर पला क्राज पास में ।। ।।