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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१२३

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प्रा दूसरा। श्यामा-"विप ! ओह सिर घूम रहा है। मैं बहुत पी चुकी है। अप अल' भयानक म्वप्न। क्या तुम मुझे जलते हुए, हस्राइल की मात्रा पिला दोगे। अमृत हो जायगा, विप मी पिला दो हाथ से अपने । पलक भर छक चुके हैं हम, उसी म पस लगे कैंपने ।। ___ विकल है इद्रियों बस देखते इस रूप के सपने । जगत विस्मृत, हृदय पुलफित, लगा तब नाम है वपन । शैलेन्द्र-“छि यह क्या कह रही हो ? फोई स्वप्न देख रही थी क्या १ को थोड़ी पी लो।। (पिज्ञा देता) श्यामा-"मैने अपने जीवन भर में सम्ही को प्यार किया है। तुम मुझे घोखा तो नहीं दोगे। ओह ! कैसा भयानक म्यान है उसी स्वप्न की तरह " शैलेन्द्र- म्या बक रही हो । सो आओ। विहार से यकी हो।" श्यामा-[ऑस्त्र बन्द किये हुप] 'क्योंयहाँ ले आये । क्या घर में सुख नहीं मिलता था । शैलेन्द्र-कानन की हरी मरी शोमा देखफर जो पहलाना चाहिये, न कि तुम इस प्रकार विछळी जा रही हो । श्यामा-"नहीं, नहीं, मैं मॉम नहीं खोलूगो, पर लगता है सुम पर मेरा विश्माम है। यहीं रहो । . (मिदित होती) -