अजातशत्र। शैलेन्द्र- स्वगत ] " सो गई। प्राह सदय में एक वेदना उठती है, ऐसी सुकुमार वस्तु! नहीं नहीं । किन्तु विश्वास के पल पर ही इसने समुद्रदत्त के प्राण लिये। यह नागिन है पलटते देर नहीं। और हमें अमी प्रनिशोघ लेना है। दावाग्नि से बढ़कर फैलना है, उसमें चाहे सुकुमार सृण कुसुम हो अथवा विशाल-शाल पुस ! दावाग्नि या अन्धड़ उस छोटे फूल फोबचाकर नहीं चलेगा। सो पस " श्यामा-(जागकर ) "शेजेन्द्र ! विश्वास । देखो कहाँ श्रोह भयानक "(आँख पन्द कर लेती है) शैलेन्द्र-"वय देर क्या ! फहीं कोई श्राजायगा फिर ( रयामा का गला घों तारे । वा मन फर शिक्षित हो जातो है) घस चलें। पर नहीं, धन की भी आवश्यकता है। (माभूपण ग्तार कर जाता है) (गौतमपुर और मानन्द का प्रयेश ) धानन्द-"भगधन् । देवदत्त ने तो श्रय य सपद्रव मचाये। तथागत फो फलहित और अपमानित करने में कौन से उपाय नहीं किये। उसे इसका फल मिलना चाहिये । - गौतम-"यह मेरा फाम नहों वेदना और संज्ञानों को दुस्य अनुभव करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। हमें अपने कर्तव्य करने चाहिये, दूसरों के मलिन फर्मों को विचारने से मी पिच पर मलिन छाया पड़ती है। .
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