पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अजातशत्र। आनन्द, विलम्ब न करो। यदि यह यों ही पड़ी रही तप भी तो विहार के पीछे ही है उस अपवाद से हम लोग कहाँ बचेंगे।" आनन्द-"प्रमु ! जैसी आमा । से वठार दोनों माते है] [लेन्द्र का प्रवेश शैलेन्द्र-" उसे कोई उठा ले गया। चलो मैं भी उसके घर में जो कुछ था ले आया । अघ कहाँ चलना चाहिये । श्रावस्ती वो अपनी ही राजधानी है। यहाँ तो अघ एक तण भी मैं नहीं ठहरूँगा माता से मेट हो चुकी, इतना द्रव्य हाय लग चुका । पस फारायण से मिलवा छुश्रा एफयारही सीधे राजगृह । रहा अजात से मिलना। किन्तु भय कोई चिन्ता नहीं श्यामा तो रही नहीं, कौन रहस्य खोलेगा। समुद्रदत्त के लिये मैं भी कोई बात पना देगा। वो चलें, इस सधाराम में कुछ भीर सी एफन हो रही है यहाँ ठहरना अघ ठीक नहीं । [नासारे] [एक मिषु का प्रवेण] मिल-"आश्चर्य ! यह मृत स्त्री जी उठी भौर इवनी हो देर में दुष्टों ने किसना पास फैला दिया था। समग्र विहार मनुष्यों से भर गया था। कोई, दुष्ट लोगों को समाइने के लिये कह रहा था कि 'पास्त्रगही गौतम ने ही उसे मार डाला। इस हत्या में गौसम फी हो कोई चुरी इच्छा थी।' फिन्तु, उसर्व स्वस्थ होते ही सब के मुख में कालिस लगा गया । पौर प्रय ।