पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भवातशत्रु। प्रसेनः-"धर्माधिकार ! पिता का हृदय इवना सदय होत. है कि नियम उसे कर नहीं बना सकता-मेरा पुत्र मुझ से क्षमा- मिता चाहता है। धर्मशास्त्र के उस पत्र को उलट दो। मैं एक पार अवश्य क्षमा कर दूंगा। उसे न करने से मैं पिता नहीं रह सकता, मैं जीवित नहीं रह सकता " धम्माधिकार-"फिन्सु महाराज ! व्यवस्था का कुछ मान रखना चाहिये। प्रसेन०-"यह मेरा त्याज्य पुत्र है। किन्तु अपराध का मृत्यु दण्ड, नहीं-नहीं-यह फिली राइस पिता का काम है। वत्स विक्ष- सफ ठो। मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ ।" (वित्रा को उठाता है) (पुर का प्रवेश ) सब--"भगवान के परणों में प्रथाम" गौतम-"विनय और शीख की रक्षा करने में सब पषित रहे, जिससे प्रजा का कल्याण छो-फरुणा की विजय हो। आज मुझे सन्तोप हुमा कोशमनरेश ! सुमने अपराधी को पमा करना सीख लिया, यह राष्ट्र के लिये कल्याण की बात हुई। फिर भी अमी सुम इसे त्याग्यपुत्र क्यों कह रहे हो ?' प्रसन-"महारा यह दासी पुत्र है। सिंहासन का भधि- कारी नहीं हो सकता है