पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अजातशनु। . . . । गौतम-"कुछ नहीं ! तुम लोग फतष्य के लिये सत्ता के 'अधिकारी पनाये गये हो, उसका दुरुपयोग न करो। मूमण्डल पर स्नेह फा, फरुणा फा क्षमा का शासन फैलाओ। प्राणीमान में सहानुभूति को विस्तृत फरो। इन क्षुद्र विष्षों से चौंककर अपने कर्म पथ से च्युत न हो आयो। ' प्रसेन०-"जैसी आज्ञा । वही होगा।" मातरात्र वठ कर विरुद्धक को गले लगाते हैं) प्रजास०-"भाई विरुद्धक, मैं तुमसे इर्षा कर रहा हूँ। विरुद्धफ-"और मैं यह दिन शीघ्र देखूगा कि तुम भी मी अफार अपने पिता से क्षमा किये गये ।" अमात-"तुम्हारी वाणी सत्य हो ।" वाजिरा- 'माई विरुसुफ ! मुझे क्या तुम भूल गये १ स्या मेरा कोई अपराध है जो मुम से नहीं बोलते थे।" विरुद्धक-"नही वहिन ! मैं तुमसे लमित है। मैं तुम्हें सदैव रेप की दृष्टि से देखा करता था, उसके लिये तुम मुझे लमा फरो, __माजिग-"नहीं माई । यही वो तुम्हारा अत्याचार है।" (सब जाते है) - पासवी--(स्वगत)"महा ! जो हृदय विकसित होने के लिये है, { जोमुख मुरपया कर स्नेह सहित पाव करने को है, उसको लोग कैसा विगायवे हैं। भाई प्रसेन, तुम अपने जीवन भर में इसने प्रसन्न ' फभी न हुए होंगे, जितने भाष । कुटुम्ब के प्राणियों में स्नेह का