पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१७२

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प्रजातरात लिये प्रस्तुत रहता है । उन्माद । और क्या ? मनुष्य क्या इस पागल विन्ध के शासन मे अलग होकर फमी निश्चेष्टवा नहीं प्रहण कर सकवा १ जीवन की शालीनता नहीं धारण कर सकता ? हाय रे मानव, क्यों इतनी सुरमिलापायें बिजली की तरह तू अपने प्रदय में आयोकित करता है, क्या निर्मल म्योति तारागण की मधुर किरणों के सरश सच्चियों का विकास तुझे नहीं रुचसा। भयानक भावुकता, उद्वेगमनक अन्त करण लेकर क्यों सू व्यग्र हो रहा है। किसे अपनी इस अनुत्तरदायित्व की योम से दवायेगा। जीवन की शान्तिमय सभी परिस्थिति फो छोड़फर व्यर्थ के अभिमान में तू फय सफ पड़ा रहेगा । यदि मैं सम्राट नहोकर फिसी धिनम्र लता के कोमल किसलयों के मुरमुट में एफ अधखिला फूल होवा और ससार फी दृष्टि मुझ पर न पड़ती-पवन के किसी लहर को सुरमिव फरफे धीरे से उस भाले में चू पड़ता-सो इतना मीपण चीत्कार इस विश्व में नमघता । वह अखिस्व अनसिस्व के साथ मिलकर कितना सुखी होता। भग वाम् , अनन्त ठोकर खाफर रफते हुए अड़ प्रहपिण्डों से भी तो इस पेतन मानव फी मुरी गत है। घरके पर धक्के खाकर इस , निर्ल्स समा से यह नहीं निकलना चाहता। कैसी विचित्रता है। भहा ! पासषी भी नहीं है। कम सफ मावेगी-12 ~ ,

  • ीपक-(प्रवेश करके) 'सम्राट् ! -

बिम्पसार-'पुप यदि मेरा नाम न जानते हो वो ममुष्य कह कर पुकारो। यह भयानक सम्बोधन मुझेन चाहिए ।