पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

महिला। यह ज्या सूबे ग्राम की तरह नीचे भी नहीं उतरता है और बाहर मी नहीं हो पाता है। मागन्धी-"समा कीजिये नाथ ! मैं प्रार्थना करती हैं, अपने पदम को इस हाला म कुछ न कीजिये । क्रोध की उत्तेजना एक संपनी फे वाक्य पर न कीजिये । अपराध क्षमाहा सत्राट् ! मैं दरिद्र- कन्याहूँ। मुझे भापके पानपर और फिमी की अमिशापा नहीं है। वे भापको पा चुकी है, आप उन्हें और कुछ की प्लबसी आफ का है, चाहे उमे लोग धर्म हो क्यों न फो। मुझे इतनी मामर्थ मी नहीं, भावश्यकता मी नहीं, मुझे तो यही परण ही पाम है।" (पैर पकड़ती है) उदयन-"हैं, अच्छा दस्या जायगा। (मुग्ध होकर ) उठो मागन्धा उठा। मुझे अपने हाथों से अपना प्रेम स्वरूप पात्र शीघ्र पिलाओ, फिर फो पात होगी ।" (मागापी मश्राि पिजाती । सायन-प्रेमोन्मत्त होकर) "सो मागन्धी,छगावो । अप मुझे । अपने मुस्वचा को निनिमेप देखने गे कि मैं एक प्रतीनिय जगत फी नतुत्र मालिनी निशा को प्रकाशित फरने वाले शरदचन्द्र की कल्पना करता हुमा भावना की सीमा को लॉप माऊँ, मोर सुम्हारा सुरमि निवास मेरी फापना को आलिशान करने लगे। " मागम्धी-"वही नो मैं भी चाहती हूँ कि मेरी मूर्छना में मेरे प्राणनाय की विश्वमोहिनी वीणा महफारिणी हो । उदय और 28