पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/९१

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मा दूसरा। ___- बिरुद्धक-"मित्र यन्धुल ! मैं तो सिरस्कृत गजमन्तान हूँ। फिर अपमान मह फर, चाहे वह पिता का ही सिंहासन क्यों न हो, मुझे रुचिकर नहीं" पन्धुल-"राजकुमार ! आपको सम्राट् ने निर्वामित सो नहीं फिया फिर आप क्यों इस तरह अफेले घूमते हैं। चलिये । भाप फा गग्य है, फाशी का सिंहासन आपको मैं दिला सकता हूँ। आप कोई चिन्ता न करें। विरुद्धक--"नहीं, पन्धुल ! मैं दया से लिया हुआ दान नहीं पाइसा । मुझे तो अधिकार चाहिये, म्वत्स चाहिये ।" मन्घुल-"फिर आप क्या करेंगे १५ विरुद्धक-"मो कर रहा हूँ।" पन्धुल-"वह क्या ?" विरुद्धक-" मैं बाहुबल से उपार्जन कसेंगा। मृगया फरूँगा । त्रिय-कुमार हूँ चिन्ता क्या है। स्पष्ट करें पन्धुल, मैं साहसिक हा गया है। अब वही मेरी मृत्ति है। गम्य स्थापन करने फ पहिसे मगध के भूपाल मी तो यही फहे मकते थे। पन्धुल-"मावधान ! राजकुमार । यह दुराचार की बात न सोचिये। यदि आप इस पय मे नहीं पलटते तय मेरा कुछ कर्तव्य होगा. वह भापके लिये पहा फठोर होगा। आनः को दमन करना प्रत्येक राजपुरुप का फर्म है। यह युवराज फो मी माननाही पड़ेगा ५७