अजातशत्र। में जो ज्याला उठ रही है उसे प्रय तुम्हारे अतिरिक्त कौन बुमय वेगा। तुम मेरे स्नेह की परीक्षा चाहते थे । योलो तुम फिस, प्रकार इसे देखा चाहते हो ?" विरुद्धक-"श्यामा-मैं साकू हूँ। यदि तुमको इसी क्षण मार डालूँ ___श्यामा--"तुम्हारे डाकूपन का ही विश्वास करके आई है। यदि साधारण मनुष्य समझती-जो ऊपर मे बहुत मीधासादा बनता है तो मैं कदापि यहाँ पाने का माहस नहीं करती । किन्तु शलेन्द्र, लो यह अपना नुफीली फटार इम सड़पते हुए करोजे में भोक दो" (पुरने के पास बैठ जाती है) _ विरुखक-"किन्तु श्यामा ! अधीन के साथ डाकू ऐसा नहीं फरसे, उनका भी एक धर्म है। तुम मे मिलने में इस लिये मैं सरता था कि तुम रमणी हो और वह भी वारविलासिनी, मेरा विश्वास है कि मी रमणियाँ डाकुओं मे भयानक हैं।"
- . श्यामा-" तो क्या अभी तक तुम्हें मेरा विश्वास नहीं । क्या
तुम मनुष्य नहीं हो, भान्तरिक प्रेम फी शीतलसा ने तुम्हें कमी स्पर्श नहीं किया। क्या मेरी प्रणयभिता, असफल होगी, जीवन की कृत्रिमता में दिन रात प्रेम का बनिस करसे फरसे क्या प्राकृतिक स्नेह का स्रोत एक पार ही सूस्म आता है। क्या वार- विलामिनी प्रेम करना नहीं जानती। क्या कठोर और फर फर्म करते करसे तुम्हारे हवय में चेतनलोक की गुदगुदी और कोमल