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सन्त कवि रविदासजी के प्रति

 

ज्ञान के आकर मुनीश्वर थे परम
धर्म के ध्वज, हुए उनमें अन्यतम,
पूज्य अग्रज भक्त कवियों के, प्रखर
कल्पना की किरण नीरज पर सुघर
पड़ी ज्यों अँगड़ाइयाँ लेकर खड़ी
हो गई कविता कि आई शुभ घड़ी
जाति की, देखा सभी ने मीचकर
दृग, तुम्हें श्रद्धा-सलिल से सींचकर।
रानियाँ अवरोध की घेरी हुई
वाणियाँ ज्यों बनीं जब चेरी हुईं।
छुआ पारस भी नहीं तुमने, रद्दे
कर्म के अभ्यास में, अविरत वहे
ज्ञान-गङ्गा में, 'समुज्ज्वल चर्मकार,
चरण छूकर कर रहा मैं नमस्कार।

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