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अखिल-भारतवर्षीय महिला-सम्मेलन
की सभानेत्री श्रीमती विजयलक्ष्मी
पण्डित के प्रति

 

जीवन की ज्यों छुटी शक्ति आरक्ति से भरी—
नभश्चुम्बिनी उतरी क्षिति पर किरण की परी,
पार कर रही थीं प्राङ्गण विश्व का अनुर्वर
अर्जित यौवन में मार्जित जीवन भर-भरकर
मुखरा, प्रिय के सङ्गः तीसरा प्रहर दिवस का;
मरूद्यान में यान तुम्हारा रुका विवश-सा;
उतरीं तुम, सङ्ग-सङ्ग प्रिय, उस रङ्गमञ्च पर
हरित-गुल्म-तरु-लता-लास कलि-हास मनोहर;
बढ़ी देखती पड़ी दृष्टि पाटल पर सुन्दर,
हृत रक्तोत्पल स्थल पर मन्द-गन्ध उन्मदकर;
स्निग्ध शान्त एकान्त; लोक-नयनों से ओझल;
उत्कल अपने में, केवल नैसर्गिक सम्वल;
तोड़ा तुमने; अधर-स्पर्श से करके व्याकुल
लगा लिया उर में प्रिय की शुभ दृष्टि गई खुल।

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