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तुम*

दिया जीवन, तुम्हारा ही दिया यह दुःख दारुणदव,
दिया अन्तःकरण बैठे जहाँ करते तुम्ही अनुभव।

तुम्हारे ही नयन ये हैं सलिल-सरिता बही जिनसे,
विकलता भी तुम्हारी है, तुम्हारा है करुण हा रव।

तुम्हारी दी हुई निधि वह तुम्हारी ही ग्रहण-विधि वह
तुम्हीं अनमन विजन वन में बहाते शान्ति शुचि सौरभ

तुम्हारा मैं तुम्हारा तन तुम्हारा ही विपुल धनजन
समझकर भीन समझा मन, मिटाओ मोह-घन गौरव

  • अनुवाद १९२२