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सोम-लता
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किसी बहुत पुराने जमाने में ब्रह्मादिक देवताओ ने सोम नाम का अमृत उत्पन्न किया। क्यों? इसलिए कि लोगों को ज़रा और मृत्यु का भय न रहे-"जरामृत्युविनाशाय" अर्थात् उसके सेवन से आदमी अजरामर हो जाय। उसका सेवन ज़रा और मृत्यु के विनाश के लिए है।

सच पूछिए तो सोम-नामक औषधिरूपी अमृत एक ही है, पर स्थान, नाम, आकार और वीर्य के अनुसार वह चौबीस प्रकार का होता है। यथा-(१) अंशुमान् (२) मुञ्जवान (३) चन्द्रमा (४) रजतप्रभ (५) दूर्वा सोम (६) कनीयान् (७) श्वेताक्ष (८) कनकप्रभ (९) प्रतानवान् (१०) तालवृन्त (११) करवीर (१२) अंशवान् (१३) स्वयंप्रभ (१४) महासोम (१५) गरुड़ाहृत (१६) गायत्र्य (१७) त्रैष्टम (१८) पांत (१९) जागत (२०) शाङ्कर (२१) आग्निष्टोम (२२) रैवत (२३) यथोक्त (२४) त्रिपदा-गायत्रीयुक्त (उडुपति) विद्यावारिधि श्रीमत्पण्डित ज्वालाप्रसाद जी मिश्र ने अपने यजुर्वेदीय मिश्र-भाष्य के पीछे सोमविषयक एक परिशिष्ट दिया है। उसमे आपने त्रिपदा-गायत्री-युक्त और उडुपति ये दो नाम पृथक पृथक् माने हैं। परन्तु ऐसा करने से सुश्रुत की लिखी हुई चौबीस संख्या नही रहती; पच्चीस हो जाती है।

पाठक देखेंगे, इन नामो में कुछ नाम तो वैदिक छन्दो के नामानुसार है और कुछ चन्द्रमा के गुण-नामानुसार। परन्तु कनीयान्, तालवृन्त आदि में दोनों बाते नहीं हैं। वे स्वतन्त्र नाम