पृष्ठ:अतीत-स्मृति.pdf/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
सोम-लता
१०३
 


करे, यह न तो सुश्रुत ही महाराज ने लिखा, न उनके टीकाकार डल्लन ही ने। इसके बाद शान्तिपाठ सुनकर मित्र जनो से सेवा किया गया वह मनुष्य कुश-शय्या*[१] के ऊपर काला मृगचर्म बिछा कर सो जाय। प्यास लगे तो ठण्डा जल पिये। सवेरे उठ कर‌ शान्तिपाठ सुने और मांगलिक कार्य या मंगलाचरण करके गऊ का स्पर्श करे। अनन्तर पहले की तरह बैठे। यहां पर "तथैवा-सीत्" का अर्थ पण्डित ज्वालाप्रसाद जो "पूर्व की ओर बैठे" लिखा है। पर हमने डल्लनाचार्य के अर्थ का अनुगमन किया है। दोनों में जो अर्थ ठीक हो पाठक उसे ही स्वीकार करे। सोमरस के पच जाने पर कै शुरू होती है। कै मे रुधिर निकलता है। उसमें कीड़े रहते हैं। के होने पर शाम को गरम करके ठंडा किया दूध पीना चाहिए। तीसरे दिन विरेचन होता है और मल के साथ भी कीड़े निकलते हैं। इस वमन-विरेचन से शरीर शुद्ध हो जाता है। अनिष्ट भोजनों से पैदा हुआ दोष दूर हो जाता है‌ इसके बाद, अर्थात् तीसरे दिन, शाम को स्नान करके फिर दूध ही पीना चाहिए। रात को क्षौम वस्त्र बिछाकर शय्या पर सोना चाहिए। किसी की राय मे क्षौम वस्त्र रेशमी कपड़ो को कहते हैं और किसी की राय में सन या अलसी की छाल से बने हुए कपड़ों को।

चौथे दिन वदन मे सूजन आ जाती है। सब अंगो से कीड़े


  1. * श्रीमत्पंडित ज्वालाप्रसाद जी की राय में कुश-शय्या से मतलब कुश के तृणों से बनी हुई खाट से है।