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अतीत-स्मृति
 


मिल जायँ तो मानो उसे एक लाख हाथी मिल गये। ऐसा होने से उसे जो लाखों सैनिक रखने पड़ते हैं उनकी कोई ज़रूरत न रहे। सिर्फ़ एक कम्पनी से सब काम निकल जाय। करोड़ों रुपये की बचत हो। मालूम होता है, अधर्म और कृतघ्नता आदि की बहुत वृद्धि होने से भगवान् सोम सदा के लिए इस देश से अन्तर्हित हो गये है। हम लोगों का अहोभाग्य है जो, सोम की तरह, भगवान् भी बिलकुल ही अदृश्य नहीं हो गये।

सुश्रुत जी के लेख से साफ़ तौर पर सिद्ध होता है कि उनके ज़माने मे, या उनके पहले, सोम जैसा पवित्र पदार्थ चमड़े के बर्तन में भी रक्खा जाता था। जिस चमड़े को छूकर, आजकल, इस अधर्मिष्ठता के ज़माने में, हम लोग हाथ धोते हैं वह उस समय अपवित्र नहीं माना जाता था। किसी सोमरस के लिए सोने के, किसी के लिए चांदी के किसी के लिए तांबे और मिट्टी के पात्रों का विधान किया गया है। यह पात्र-कल्पना या तो सोने के स्वभाव और गुण के अनुसार की गई होगी या पान करने वाले के सामर्थ्य के अनुसार। जिसके पास सोने का न हो वह चांदी के पात्र में निचोड़ा जाने वाला सोम पिये। वह भी न कर सके तो तांबे, मिट्टी या चमड़े के पान वाले को पिये। परन्तु ग़रीबो के लिए उसका पान शायद असम्भव था। क्योंकि तीन पौठ का घर और सोने का सिक्का मिलना उनके लिए कठिन समझना चाहिए। शुद्रो के लिए सोम रसायन पीने की जो मनाही है सो उचित ही है। वेदो का पढ़ना जब उनके लिए मना है तब