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आर्य्य शब्द की व्युत्पत्ति
 


आया है। यास्क और सायन आदि ने इस मत की पोषकता की है। इस विषय मे ऋग्वेद के दो एक मन्त्रों के भावार्थ सुनिए-

(१) हे आह्वान-योग्य इन्द्र, तुम मनुष्यों के (कृषी नाम) हव्य के पास आओ और अभिष्णु सोमपान करो। ८-३२-१९

(२) हे सोम, मानवसमूह (कृष्टयः) जिससे तुम्हारे व्रत में व्रती बने रहे। ९-८६-६७

(३) तुम मनुष्यो के धारक और उनमें समिद्ध हो (कृष्टीना धर्ता उत मध्ये समिद्धः) ५-१-६

(४) सोमपान करके सब मनुष्य (विश्वाः कृष्टयः) जिससे काम्य पदार्थ प्राप्त करते हैं उसी महान् इन्द्र की स्तुति करो। ३-४९-१

इससे सिद्ध है कि "कृष्टी" शब्द का अर्थ वेदों में मनुष्य किया गया है। जिस समाज में कृषकवाची कृष्टी शब्द से साधारण मनुष्य का बोध होता है उसमें कृषि कार्य्य ही प्रधान व्यवसाय समझाना चाहिए। परन्तु कृष्टी शब्द का अर्थ यदि आप मनुष्य न करके कृषक ही करेंगे तो आपको कबूल करना पड़ेगा कि हमारा वेद अँगरेजी पंडितों के कथनानुसार "हल जोतने वालों का गीत-समूह" है। क्योंकि पूर्वोक्त मन्त्रार्थों से प्रकट है कि वैदिक कृष्टी लोग ही यज्ञ करते थे, मन्त्र पढ़ते थे, स्तुति करते थे। ऋग्वेद में जैसे "पञ्च मानुषाः" और "पञ्च जनाः"आदि प्रयोग है वैसे ही "पञ्च कृष्टोः" भी है। अतएव इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऋग्वेद के समय में कृषिकार्य्य ही आर्य्यों की प्रधान आजीविका थी