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अतीत-स्मृति
 


आर्य लोग आदर-पूर्वक पीते थे। वाग्भट-कृत अष्टाङ्ग हृदय में भी यही लिखा है-"सौत्रामण्यां द्विजमुखे या हुताशे चहूयते।" अर्थात सौत्रामणी यज्ञ में सरा अग्नि में होमी भी जाती है और द्विजो को पिलाई भी जाती है। अतएव वाग्भट के अनुसार सौत्रामणी यज्ञ मे जो सुरा पान की जाती थी वह कोई असाधारण सुरा न थी। मामूली मदिरा थी।

वैदिक समय में लोग सोमरस को यों भी पीते थे और उसमें मादकता उत्पन्न करके उसको सुरा बना करके भी पीते थे। परन्तु एक बात समझ में नहीं आती। यदि सुश्रुत जी के कथनानुसार सोम-रस में वमन और विरेचन आदि उत्पन्न करने का गुण था तो बहुत पुराने वैदिक समय में तो सोमरस पान किया जाता था। उसमे यह बात क्यों न थी। इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि सोमरस पीने वाले को छर्दि होती थी, या उसका मांस गल जाता था, या और कोई बात वैसी होती थी। सोमरसायन पीने की जो विधि सुश्रुत में दी गई है उसमें सोम-रस के साथ और कोई औषधि मिलाने की बात नहीं है, जो यह कहे कि उसके कारण वमन, विरेचन आदि उत्पन्न करने की शक्ति सोम-रस मे आ जाती हो। इधर वैदिक सुरा में अन्यान्य ची पारूरत मिलाई जाती थीं। उनके कारण सोम का वह गुण यदि जाता रहता था तो यों ही जो लोग सोमरस पीते थे उनके शरीर में कोई विकृति क्यों न होती थी।

जिस औषधि का जो गुण है वह होना ही चाहिए। वेदों में