रङ्ग काला होता है-उससे दूध निकलता है। लता में पत्तियां नहीं हीं होती । चखने मे वह कडुई मालूम होती है। उसकी त्वचा
मांसल होती है । उसे खाने से केै़ होने लगती है। उससे इलेष्मा
भी हो जाता है। उसे बकरियां खाती हैं । इस वर्णन के अनुसार
सोम का कडुवा होना सुश्रुत के वर्णन से मिलता है। क्योंकि जीभ
में छू गये बिना ही सोम-रस पीने का विधान सुश्रुत ने लिखा है।
इसका कारण कडुवेपन के सिवा और क्या हो सकता है ? रसना
मे लगने से अति-कटुता के कारण सोमरस पिया न जायगा, इस
लिए सुश्रुत ने एक सॉस मे पाव भर रस गले से नीचे उतारने की
विधि लिखी है। केै़ होना भी सुश्रत के दिये हुए लक्षण से मिलता
है, और लता से दूध निकलना भी। परन्तु बिना पत्ती के लता का
होना जो लिखा है सो सुश्रुत के लक्षण से नहीं मिलता । सूखने
से यदि पत्तियो का गिर जाना माना जाय तो सूखी लता से दूध नहीं निकल सकता। सम्भव है, कोई सोमलता बेपत्ते की भी रही हो।
सूखी हुई भी फिर हरी हो सकती है। उसके कितने ही दुकड़े कर दिये जाँय सब टुकड़े फिर जिन्दा हो कर लग जाते हैं । अर्थात एक एक टुकड़े की एक एक वेल हो सकती है। यह झालरापाटन में मौजूद है और भी कई एक जगह है। इसे अमृत-वल्ली भी कहते हैं। इसका सूखा टुकड़ा पानी में भिगो कर निचोड़ा जा सकता है। वह रस भी काम में आता है ।"
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