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सोम-लता
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प्राचीन समय में सोम-रस का बहुत प्राचुर्य था। पुरातन आर्य उसे बहुत पीते थे। उससे दूध की तरह का रस निकलता था। वह कुछ समय तक रक्खा जाता था; बाद में दूध और शहद मिला कर पिया जाता था। उसके पीने से कुछ थोड़ा सा नशा होता था, बहुत नहीं। उसमे विशेष मादकता उत्पन्न करने की युक्तियाँ पीछे से निकाली गई थी। धीरे धीरे सोम-पान का चसका आर्य्यों को लग गया और सोमलता का बहुत खर्च होने लगा। पीने और हवन करने में बेतरह खर्च होते होते वह अप्राप्य हो गई। तब उसकी जगह अन्यान्य औषधियाँ-पूतिका आदिक-काम में आने लगी। यही हाल और भी कितनी ही औषधियों का हुआ है। आयुर्वेदिक चिकित्सा-शास्त्र में कितनी औषधियाँ ऐसी हैं जो खर्च होते होते बिल्कुल ही नष्ट हो गई हैं। अब उनकी जगह और और औषधियां काम में लाई जाती है।

झांसी के पास एक जगह बरुवासागर है। वहां एक झोल है। उसके किनारे ब्राह्मी नाम की एक औषधि होती है। पर वह लता नही। एक छोटा सा पौधा है। एक दफ़े एक वैद्य महाशय‌ उसे वहां से लाये थे। ब्राह्मी भी सोमलता ही का एक पर्यायवाची नाम है। वे कहते थे कि यही सोमलता है और उसके रसायन की विधि भी आप बतलाते थे। पर वह विधि विलक्षण थी। वे‌ कहते थे कि गले तक जल के भीतर बैठकर उसे पीना चाहिए। उसके साथ और भी कितने ही झंझट आप बतलाते थे। पर