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अतीत-स्मृति
 


हमारी समझ में वह सोमलता नहीं। उसके एक भी लक्षण सुश्रुत और धूर्तस्वामी के उद्धत लक्षणा से नहीं मिलते।

कुछ समय हुआ, इटावा-निवासी पं॰ भोमसेन शर्मा ने एक यज्ञ किया था। उसके लिए उन्होंने रीवां (बुँदेलखण्ड) के पहाड़ो से सोमलता के नाम से एक बल्ली मंगाई थी। उसके विषय में पण्डित जी लिखते हैं―“वास्तव में सोमलता नहीं मिलती, ऐसा हमारा अनुमान है। परन्तु सोमयागों में काशी के पंडित लोग जिसको सोम मानते हैं और काम में लाते हैं वह रीवाँ के राज्य में है।”

मानना और बात है, प्राचीन-ग्रंथों में दिये गये लक्षणों से मिलती हुई सोमलता ढूंढ़ लाना और बात है। यों तो शायद किसी दिन कोई भृङ्गराज को सोमलता मानने लगे। कुश और कास तक जब ब्राह्मणों, पितरों और देवताओ की जगह पर लिये‌ जाते हैं तब सोम की जगह पर कुछ रख लेना कौन बड़ी बात है।

आर्यों और पारसियो के पूर्वज किसी समय में एक ही थे। दोनों सोमरस पीते थे। इसी से सोम का नाम प्राचीन से भील प्राचीन माने गये वैदिक मन्त्रों में पाया जाता है। इधर पारसियों के प्राचीन ग्रन्थ “अवस्ता” में भी सोम का नाम विद्यमान है। पर वहाँ सोम का होम हो गया है। इस होम का व्यवहार भारतवर्ष के पारसी अब तक करते है। वे उसे बहुत पवित्र मानते है। यह सोम सूखी दशा में फारस से आता है। उसे देखकर लोगों का ख्याल हुआ था कि शायद यही आर्यों का सोम है। पर योरप