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सोम-लता
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उस समय घर-घर योग होता था, घर-घर अग्नि देव की पूजा होती थी। अग्नि एक विलक्षण प्रभाव-पूर्ण देवता मानी जाती थी। इससे सोमरस अग्नि में भी चढ़ाया जाता था। इसी कारण धीरे धीरे सोम का प्रभाव बढ़ गया। कुछ समय बाद इतने नशे से आर्यों को सन्तोष न होने लगा। तब उन्होने सोमरस में अन्यान्य पदार्थ मिला कर उसमे अधिक मादकता पैदा की और उससे सोमसुरा तैयार होने लगा। इसी तरह सोम का घर-घर खर्च होने और उसकी रक्षा का कोई प्रबन्ध न किया जाने से उसका सर्वथा नाश हो गया।

परन्तु सुश्रुत के अनुसार सोमरस पान करने से अलौकिक शक्ति, रूप, आयु आदि को प्राप्ति की बात आज कल के विद्वानों-वनस्पति-विद्या के पंडितों और पुरातत्व-प्रेमियो की समझ में नही आती। सूत्र और ब्राह्मण-प्रन्थों के समय में भी सोमलता दुष्प्राप्य हो गई थी। इस कारण सोम के स्थान मे और चीजो के प्रयोग इन ग्रन्थो मे लिखे हैं। यदि सुश्रुत जी का ग्रन्थ सूत्र-ग्रंथों के बाद माना जाय-और माना ही जाता है-तो उनके समय मे भी सोमलता अप्राप्य नहीं तो दुष्प्राप्य जरूर रही होगी। अधमिर्यों को सोमलता न दिखाई देने की जो वात सुश्रुत जी ने लिखा है, उससे भी यही सूचित होता है। अतएव, सम्भव है, सुश्रुत जी ने जो कायाकल्प की विधि लिखी है वह किसी बहुत पुराने ग्रन्थ के आधार पर लिखी हो और वह अन्य उस समय का हो जब अपने विलक्षण मादक गुण के कारण सोमलता एक अलौकिक