पृष्ठ:अतीत-स्मृति.pdf/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
अतीत-स्मृति
 


और कृष्टी तथा आर्य्य शब्द का धात्वर्थ कृषक होने पर भी वे असाधारण मनुष्य-अर्थ में व्यवहृत होते थे।

वैदिक समय में खेती करना नीच काम नहीं समझा जाता था। "है अक्षैः मा दिव्यः। कृषिं उत कृषस्व"। अर्थात पांसा मत खेलना; खेती करना। यह ऋग्वेद के दसवें मण्डल का एक मन्त्र है। इसमें खेती करने की साफ आज्ञा है। यदि कृषि-कार्य्य बुरा समझा जाता तो कभी यह मंत्र वेदों में न पाया जाता। पूर्वोक्त मण्डल के १०१ सूक्त में कृषि-कार्य्य-सूचक कितनी ही बातें है। चौथे मण्डल के ५७ सूक्त में खेत, खेत के स्वामी, हल, हलके कुँड़ इत्यादि के विषय में अनेक श्रद्धापूर्ण बातें हैं, जिनसे सूचित होता है कि ऋषिजन खेती के काम को बड़ी श्रद्धा से करते थे। महाभारत में लिखा है कि आमोद-धौन्य नामक ऋषि खेती करते थे और आरुणि आदि उनके शिष्य खेत में काम करने जाया करते थे। रामायण मे जनक का हल-प्रहण सर्वश्रुत ही है। जब महाभारत और रामायण के समय में भी बड़े बड़े ऋषि और राजा कर्षण करना बुरा न समझते थे तब वैदिक युग में राजा-प्रजा, पंडित-मूर्ख सभी लोग हल-संचालन द्वारा खेती करेंगे, इसमें क्या सन्देह? हां इस समय कितने ही ब्राह्मण, क्षत्री, विशेष करके कनवजिया ब्राह्मण, हल छूना पातक समझते है। परन्तु अँगरेज़ों के कृपा से यदि कानपूर का कृषि-कालेज बना रहा तो कृषि-विषयक वैदिक सभ्यता का पुनरुद्धार हुए बिना न रहेगा। क्योकि काॅलेज में हल चलाना भी सिखाया जाता है।