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सोम-याग
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से था। वह होम आरम्भ-सूचक था। उसका नाम दीक्षणीय इष्टि था।

इस प्रकार दीक्षा का काम पूरा हो जाने पर पहले अध्वर्य्यु ऊँचे स्वर से देवताओं और मनुष्यों को सुनाते थे कि "अदीक्षिष्टोऽयं ब्राह्मणः" अर्थात् इस ब्राह्मण ने दीक्षा ग्रहण की। यजमान क्षत्रिय और वैश्य हो तो भी वह ब्राह्मण ही कहा जाता था। फिर दीक्षित यजमान, प्राणेष्टि नामक एक छोटा सा याग करता था। इस याग मे चरुपाक करके उससे अदिति, और घी से अग्नि, सोम, सूर्यदेवता का होम किया जाता था। यह हो जाने पर वास्तव मे यज्ञ का प्रारम्भ होता था। तब प्रति-प्रस्थाता नामक ऋत्विक "उपरव" प्रदेश में (उपरव किसे कहते है, यह पीछे बताया जायगा) कुश बिछाकर उनके ऊपर सोमलता का गट्ठा रखते थे। फिर सोम-विक्रेता सोम के रेशों की परीक्षा करता और साफ करता था। पीछे १७ ऋत्विको सहित यजमान वहाँ आकर उसे मोल लेता था। लाल रंग की एक वर्ष की एक गाय देकर सोम मोल लेना पड़ता था। ऐसी गाय लाकर अध्वर्य्यु सोम-विक्रेता से पहले मोल-तोल करता था। मोल-तोल की बातें आश्चर्यजनक हैं यथा-

अध्वर्य्यु-"आर्य भी विक्रेतव्यसते सोमो राजा!" सोम को क्या तुम बेचोगे?

सोमविक्रेता-"अस्ति विक्रेतव्यः" हाँ बेचने के लिए है।