पृष्ठ:अतीत-स्मृति.pdf/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सोम-याग
१२९
 


दक्षिण ओर, एक लकड़ी के पीढ़े पर मृगचर्म बिछाकर, उस पर वे रक्खे जाते। उस समय आतिथ्येष्टि नामक एक छोटा-सा याग किया जाता। अर्थात् राजा सोम मानों गृह में अतिथि हुए हैं। अतएव यथोचित अतिथि-सत्कार करना उचित है। इसी भाव से वह इष्टि, अर्थात् पूजा, की जाती और वह ठीक लौकिक रीति से सम्पादित होती।

फिर सोम-याग के विघन्कारी असुरों की पराभव-कामना से यजमान तीन दिन तक "उपसद" नामक एक छोटा-सा यज्ञ करता। उसमे सबेरे और सन्ध्या-समय सोम और विष्णु देवता के नाम पर घी की आहुतियों से होम किया जाता।

तीन दिन होनेवाले उपसद-नामक यज्ञ के बीचवाले दिन सौमिक वेदी बनाई जाती थी। उसके ऊपर का भाग, चारों ओर, बितान से ढक दिया जाता था। उसके सम्मुख भाग का नाम अंश और पश्चाद् भाग का नाम श्रोणी होता था। इस वेदो के अंश के उत्तर-भाग मे १० डग के नाप की एक वेदी बनाई जाती थी। वह अग्निहोत्र वेदो के सहश होती थी। उसका नाम "उत्तरवेदी" होता था। उस वेदी के अंश के उत्तर-भाग में पूर्व-पच्छिम, एक डग की एक और वेदो बनाई जाती थी। उसका भी आकार अग्निहोत्र-वेदी के सहश ही होता था। फिर महावेदी के मध्य भाग मे ओणी-रेखा खींची आती थी । मध्य से अंश तक उस सुव्यक्त रेखा का नाम "पृष्ठ्या" होता था। महावेदी के उत्तरांश के पश्चाद् भाग में, चीन डग की दूरी पर, एक गढ़ा