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सोम-याग
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मे यजमान के आकार का एक औदुम्बरी स्थूणा (खूटा) गाड़ा जाता था। फिर अग्निशाला का निर्माण, सदोमण्डप और हविर्धान-मण्डप के उत्तर-भाग में, होता था। उसका एक अधीर्श वेदी की ओर घुसा हुआ और दूसरा बाहर को निकला हुआ रहता था। उसमें दो द्वार होते थे। एक दक्षिण की ओर, दूसरा पूर्व की ओर।

आहवनीय-कुण्ड के निकट ही यज्ञीय यूप-स्तम्भ गाड़ा जाता था।

महावेदी बन जाने पर, वैसर्जन नामक होम के बाद, अग्निष्टोमीय पशुयाग का प्रारम्भ होता था। यह याग सोमयाग का पूर्वाङ्ग है। उस समय वंश-शाला में उत्तर-वेदी पर रक्खी हुई सोमलता को लाकर हविर्धान-मण्डप में रखते थे। फिर यज्ञीय पशु को पवित्र जल से स्नान करा कर, यूप के सामने, पश्चिम-मुँह खड़ा कर के, कुशाञ्जलीयुक्त प्लक्ष शाखा से उसे मन्त्रपूत करते थे। मन्त्रपूत अर्थात् उपाकरण हो जाने पर संज्ञपन अर्थात् वध करने तक जो क्रियायें की जाती थीं, उनका ना मपश्वालम्भन था।

दाँता हुआ, सर्वाङ्गपूर्ण, रोगशून्य और बहुत हृष्ट-पुष्ट बकरा ही यज्ञ-कार्य्य मे ग्रहण किया जाता था।

पशु जब वध्यस्थान में लाया जाता था तब ऋत्विक् लोग ऊँचे स्वर से वेद-मन्त्र-गान करते थे। जो मन्त्र गाये जाते थे उन में से एक का अर्थ यो है। "हे व्यापक इन्द्रिसमूह! इस पशु की इन्द्रियाधिष्ठात्री देवी सहित तुम हमे हवि अर्थात् होम-द्रव्य दो।"