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सोम-याग
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फिर हविर्धान की गाड़ी के अक्ष-प्रान्त में दो ऊर्णवस्त्र, अर्थात् भेड़ के रोयें के बने कम्वल, सोमरस छानने के लिए रक्खे जाते थे। तदनन्तर दक्षिणी हविर्धान के छकड़े के नीचे मिट्टी का एक द्रोण-कलश रक्खा जाता था और उत्तरी हविर्धान के छकड़े के ऊपर दूसरे दो बड़े-बड़े कलश। उनमे से एक का नाम उपभृत और दूसरे का नाम आघवनीय था। पश्चात् उत्तरवाले छकड़े के नीचे १० काष्ठमय चमस और मिट्टी के ५ घड़े रक्खे जाते थे। यह सब कार्य उन्नेता करता था।

इसके अनन्तर अध्वर्य्यु की आज्ञा से यजमान, उसकी पत्नी और चमसाध्वर्य्य, ऊपर लिखे हुए घड़ों में जल लाते थे। जो जल पुरुष लाते उसका नाम एकधन और जो यजमान-पत्नी लाती उसका नाम पानजन था। अध्वर्य्यु इन दोनों प्रकार के जलों को पूर्वोक्त वसतीवरी जल में मिला देते थे। फिर यजमान, प्रतिप्रस्थाना, नेष्टा और अध्वर्य्यु उस सोमवाली सिल के पास बैठ कर और लोढ़ा हाथ में लेकर, अनुक्षा-वाक्य उच्चारण करते थे। अनन्तर अध्वर्य्यु पाँच मुट्ठी सोम सिल पर रखते थे। प्रतिप्रस्थाता उस सोम के ढेर में से ६ सोमअंशु लेकर अपनी उँगलियो के बीच में दवा रखते थे। फिर सब इकट्ठे होकर उसे पीसते थे। इस प्रकार सोमरस निकालने का नाम सोमाभिपव्


का और स्थाली मिट्टी का बनता था। ये दोनों बर्तन भिन्न आकार के बनाये जाते थे।