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अतीत-स्मृति
 


था। यह दिन में केवल तीन बार किया जाता था। सबेरे के सोमाभिषव् का नाम प्रातः-सवन, मध्यवाले का नाम माध्याह्न-सवन और सायङ्काल वाले का सायंसवन था। निकाले गए सोमरस की आहुतियाँ दी जाती थीं। शेष भाग पोने के लिए रक्खा जाता था।

आहुति-योग्य सोमाभिषव् समाप्त होने पर पुरोहित लोग महाभिषव् अर्थात् अधिकता से सोम पीसना प्रारम्भ करते थे। प्रतिप्रस्थाता आदि सब लोग एकत्र होकर पीसते और अध्वर्य्यु उसमे जल देते जाते। अच्छी तरह पिस जाने पर उसे आघवनीय कलश मे डाल कर हिलाते रहते। फिर उसे कपड़े से दबा कर रस निकालते। उस रस को क्रम से ग्रह, चमस और कलश में भरते और अनेक प्रकार के मन्त्र और स्तोत्र पढ़ते। उससे देवताओ के नाम पर आहुतियाँ दी जातीं।

सोमयाग के देवता-सूर्य, अग्नि, इन्द्र, वायु, मित्र, वरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेव, महेन्द्र, वैश्वानराग्नि, चैत्रादि मालों की अधिष्ठात्री देवता, मरुद्गण सहित इन्द्र, त्वष्ट-सहित अग्नि-पत्नी स्वाहा हैं।

इस अनुष्ठान के बाद पुरोहित और यजमान सोमरस पी कर‌ आत्मा को कृतकृत्य समझते थे। पुरोहित और यजमान के सोमपान के विधान में भेद है। पुरोहित प्रत्येक सवन में बचा‌ हुआ सवन पीता और यजमान केवल सायंसवन में पीता था। याग समाप्त होने पर यजमान पहले कहे हुए सदेमिण्डल में