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अतीत-स्मृति
 

शेष गायें आदि दूसरे सहकारी ब्राह्मणों को, अर्थात् चमसाध्वर्य्यु आदि को, यथाशास्त्र विभाग करके दी जाती थी।

उस समय दूसरे याचक, अर्थात् बिना बुलाये आये हुए ब्राह्मण, अन्धे, लँगड़े, अनाथ, दीन आदि को अन्न, वस्त्र, सोना इत्यादि यथा-शक्ति बाँटे जाते थे।

यज-समाप्ति के बाद एक और कार्य करना पड़ता था। उसका नाम अवभृथ-स्नान था। वह स्नान बड़े समारोह से होता था। पुरोहित, वन्धु-वान्धव, सुहृद् और उनकी स्त्रियाँ सब एकत्र होकर यजमान-सहित स्नान करने के लिए किसी‌ बड़ी नदी, नदी न हो तो किसी पवित्र जलाशय, को जाते थे। जाते समय प्रस्तोता नामक पुरोहित आगे-आगे सामान करते चलते और यजमान आदि पुरुष तथा उनकी स्त्रियाँ पीछे-पीछे गाती हुइ जाती थीं। जल के पास पहुँचने पर पहले एक होम किया जाता था, पीछे जलक्रीड़ा होती थी। यह अवभृथ-स्नान बड़े बड़े यज्ञों का अङ्ग था। इस स्नान से शायद ब्रह्महत्यादि सब पाप दूर हो जाते थे*[१]

[जनवरी १६१५


  1. * इस विषय पर बा॰ रामदास सेन का लिखा हुआ एक लेख बँगला में है। उसका अनुवाद तेली-समाचार में निकला था। उसी का यह यत्र-तत्र परिवर्तित और परिष्कृत रूप है।