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अतीत स्मृति
 


समझा जाता था। विश्वविद्यालय के सभागृह में सवेरे से शाम तक शास्त्रार्थ हुआ करता था। दूर-दूर देशो से पंडित अपनी शङ्कायें दूर करने के लिए वहाँ आते थे। नालन्द के विद्यार्थियों का देश भर में आदर, सत्कार, सम्मान होता था। जहाँ वे लोग जाते थे वहीं उनकी इज्जत होती थी। यों तो नालन्द-विश्वविद्यालय के प्रायः सभी अध्यापक उत्कृष्ट विद्वान थे, पर उनमें से नौ मुख्य थे। हुएनसंग ने उनकी सीमारहित विद्वत्ता, योग्यता, देश-व्यापी ख्याति, अद्भुत प्रतिभाशालिता की खूब प्रशंसा की है। उन नौओ अध्यापकों के नाम ये हैं-धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानचन्द्र, शीघ्रबुद्धि और शीलभद्र। इनमें से शीलभद्र, हुएनसंग के समय में, विश्वविद्यालय के अध्यक्ष थे। बौद्धधर्म्म के महायान-सम्प्रदाय के जगद्विख्यात संस्थापक नागार्जुन का सम्बन्ध भी किसी समय नालन्द-विश्वविद्यालय से था।

नालन्द के प्रायः सभी अध्यापक और विद्यार्थी धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे। असल में धार्मिक जीवन बिताने के लिए ही इसकी सृष्टि हुई थी। इसीलिए इसका नाम "धर्मगंज" पड़ा था। परन्तु पीछे इसकी काया पलट गई थी। दर्शन और धर्मशास्त्र के साथ साथ व्याकरण, ज्योतिष, काव्य, वैद्यक आदि व्यावहारिक और सांसारिक विद्यायें भी पढ़ाई जाने लगी थी। तमाम हिन्दुस्तान के विद्यार्थी इन विद्याओं को पढ़ने के लिए यहाँ आते थे।