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बौध्दकालीन भारत के विश्वविद्यालय
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सौ साठ पंडित पढ़ाते थे। इन सब पंडितों तथा अन्य अतिथि विद्वानों का खर्च पूर्वोक्त महाराज के दिये हुए गाँवों की आमदनी से चलता था। बीच का भवन विज्ञान-मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध था। उसमे बिहार के महन्त उन पंडितों से बौद्ध-प्रन्थ पढ़ते थे जो विश्वविद्यालय के प्रथम और द्वितीय स्वम्म कहलाते थे। राजा जयपाल के शासन काल में विश्वविद्यालय की देखभाल के लिए छः द्वार-पंडित नियत थे। इसी समय महात्मा जेतारि ने एक सत्र स्थापित किया था। उसमें विक्रमशिला के विद्यार्थियों को मुक्त भोजन मिलता था। विद्यालय के स्थायी विद्यार्थियों को भोजन देने के लिए चार सत्र पहले ही से थे। इनके सिवा वारेन्द्र के अधीश महाराज सनातन ने दशवी शताब्दी के आदि मे एक सत्र और भी खोला था। विश्वविद्यालय के प्रबंध के लिए छः विद्वानो की एक सभा थो, जिसका सभापति सदा राजपुरोहित होता था। महाराज धर्मपाल के समय में अध्यक्ष के पद पर श्रीबुद्धज्ञानपादाचार्य्य नियुक्त थे। ग्यारहवी शताब्दी में इस पद पर श्रीयुत दीपांकुर या दीपंकर महाशय नियत थे। अपने समय के ये बड़े विख्यात विद्वान थे। इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा सुन कर तिब्बतवालों ने इन्हें अपने यहाँ बुलवाया था। इस विश्वविद्यालय से पढ़कर जो विद्यार्थी निकलते थे उनको पंडित की पदवी दी जाती थी। अपने समय के सबसे बड़े नैयायिक पंडित जेतारि ने इसी विश्वविद्यालय के पंडित की पदवी और राजा महापाल का हस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र पाया था। महाराज