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अतीत-स्मृति
 


उनकी गहरी विद्वत्ता से इतने प्रसन्न हुए थे कि उन्होंने उनको द्वारपंडित के प्रतिष्ठित पद पर नियत किया था। सन् १८३ ईसवी में काश्मीर-निवासी रत्नवज्र नामक एक प्रसिद्ध विद्वान् ने भी यहाँ से पंडित की पदवी और राजा चणक का हस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र पाया था। इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, अभिधर्म (बौद्ध-मनोविज्ञान), दर्शन-शास्त्र, विज्ञान, वैद्यक आदि कई विषय पढ़ाये जाते थे। तिब्बत के लामा विक्रमाशिला में आते थे और वहाँ के पंडितों की सहायता से संस्कृत-ग्रंथो का अनुवाद तिब्बतो भाषा में करते थे। सन १२०३ ईसवी में बख्तियार खिजली ने इस विहार पर आक्रमण किया और इसे लूट-पाट कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। भारतवर्ष के अन्य बौद्ध-विहारों की भी यही दशा हुई।

[जनवरी १९०९