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प्राचीन भारत में युद्ध-व्यवस्था
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ये दो विभाग हो जाने से कृषि, वाणिज्य आदि अन्यान्य कार्य करने वाले तीसरे विभाग में गिने गये। वे वैश्य कहलाये।

आर्यों के वैदिक देवता भी बड़े युद्ध-प्रिय थे। युद्ध करना उनका स्वाभाविक काम थ। युद्ध मे इन्द्र की अच्छी प्रतिष्ठा थी। युद्ध ही में विजय पाने के कारण इन्द्रदेव इन्द्रासन के मालिक हुए है। आप देवराज भी, इसी कारण, कहलाये है। इन्द्र ने बड़े बड़े राक्षसों का वध किया है। वृत्रासुर, विप्रु और संवर आदि के अतिरिक्त और भी अनेक राक्षसों का आपने नाश किया है। हमारे प्राचीन कवियों ने इन्द्र के इस बड़े भारी महत्व के कारण अपनी कविताओं में इनके इन गुणों का खूब ही वर्णन किया है। वेदो में इन्द्र की अनेक स्तुतियां है। अग्नि, मित्र, वरुण, मरूर और अश्विनीकुमार आदि भी युद्ध में विजयी हुए थे। इसीसे वे भी बड़े यशस्वी और प्रतिष्ठापात्र माने गये हैं। प्राचीन समय में, जब क्षत्रिय लोग युद्ध मे जाने के लिए तैयार होते थे तब, अपने अपने इष्ट देवताओं से युद्ध में अपनी सहायता के लिए प्रार्थना करते थे। युद्ध के समय, प्राचीन काल में, सोमपान खूब किया जाता था। सोमपान से शरीर में बल की वृद्धि होती थी। और युद्ध में बलवान ही की जीत होती है। अध्यापक राज-गोपालाचार्य्य, एम॰ ए॰, ने इस विषय में एक महत्व-पूर्ण लेख "इंडियन-रिव्यू" में प्रकाशित किया है। अँगरेजी़ न जानने वाले पाठको के सुभीते के लिए उसका सारांश आगे लिखा जाता है।

हमारे यहाँ युद्ध दो प्रकार का था। एक धर्म-युद्ध, दूसरा