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अतीत-स्मृति
 


कूटयुद्ध। धर्म-युद्ध पूर्व-निश्चित नियमों के अनुसार होता था। कूटयुद्ध में नियमों की पावन्दी न होती थी। छल, कपट और चालबाज़ी से एक दूसरे को हराने को चेष्टा करता था। कूटयुद्ध प्रायः राक्षस लोग ही करते थे। इसीलिए देवता भी उन्हें परास्त करने के लिए कूटयुद्ध का आश्रय लेने लग गये थे। पर कूटयुद्ध का महत्व कोई भी पक्ष स्वीकार नहीं करता था। जहाँ तक होता था, लोग धर्म-युद्ध का ही आश्रय लेना पसन्द करते थे। धर्म-युद्ध का अधिक महत्व होने पर भी लोग शस्त्रास्त्रों के नये नये आविष्कारों से उदासीन न थे। तरह तरह के धनुष, बाण, भाले, बर्छे और ज़िरह-बस्तर आदि युद्धोपयोगी वस्तुओं का प्रचार धीरे धीरे खूब बढ़ गया था। युद्ध-विद्या में उस समय अच्छी तरक्की हो चुकी थी। प्राचीन आर्य छोटी ही छोटी लड़ाई न लड़ा करते थे। वे, लाखों मनुष्य एकत्र करके लड़ाई के मैदान में कभी कभी बाकायदा हट जाते थे। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में बड़े बड़े युद्धों का वर्णन है। रामायण के समय से लगा कर महाभारत के समय तक कई बड़े बड़े युद्ध हुए हैं। उनमे प्रत्येक पक्ष के योद्धाओं की संख्या लाखों थी। इस से सिद्ध है कि उस समय युद्ध-विद्या विशेष उन्नत हो गई थी और आर्य लोग खूब रणनिपुण हो चुके थे। चक्रव्यूह के सदृश कितने ही व्यूहों को रचना करके वे युद्ध करते थे। महाभारत में कई स्थानों पर इस प्रकार की रचनाओं का वर्णन है। एक व्यूह-रचना वे ऐसी करते थे जिसमें सैनिकों का मुँह चारों ओर शत्रु के सामने ही रहता