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प्राचीन भारत में युद्ध-व्यवस्था
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श्रीमद्भगवतद्‌गीता में भी श्रीकृष्ण ने धर्मयुद्ध का बड़ा महत्व सूचित किया है। वे कहते हैं—

धर्म्याद्धि युद्धाच्छेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥

अर्थात्‌—क्षत्रिय के लिए धर्म-युद्ध से बढ़ कर और कोई बात कल्याणकारी नहीं है। ऐसा युद्ध क्षत्रियों के लिये अपने आप ही खुले हुये स्वर्गद्वार के सदृश है।

गीता की इस अन्तिम बात से भी ज्ञात होता है कि हमारे यहां युद्ध को बड़ा महत्व दिया जाता था। महाभारत में "यतोधर्मस्ततो जयः" कह कर धर्म-युद्ध की विशेष महत्ता सूचित की गई है।

हमारे नीतिशास्त्र में साम, दाम, दण्ड और भेद ये चार नीतियां शत्रु को पराङ्मुख करने के लिए उपयुक्त मानी गई हैं। मनु महाराज युद्ध का मुख्य फल राजा के लिए भविष्यत् में एक अच्छा मित्र खोज लेना बतलाते हैं। वे धन या भूमि की प्राप्ति को अधिक महत्व नहीं देते। पूर्वोक्त चारों नीतियों में से किसी भी एक या एकाधिक के द्वारा मुख्य फल प्राप्त कर लेना ही, मनु के मत में, युद्ध का अन्तिम उद्देश्य होना चाहिए।

आज कल हम लोग जर्मनी की जासूसी का वृत्तान्त पढ़ कर आश्चर्य्य करते हैं। पर हमें स्मरण रखना चाहिए कि भारत में बहुत पहले जासूसी का प्रचार था। राजा का नाम चारचक्ष