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अतीत-स्मृति
 

अर्थात् जासूसों की आंखों से देखने वाला हैं। हर एक राजनीति के लेखक ने दूतों के काम निर्दिष्ट किये हैं। प्राचीन काल में दूतों के द्वारा ही युद्ध-घोषणा की सूचना दी जाती थी। दूत सदा अवध्य माने जाते थे। रामायण और महाभारत में इसके कई उदाहरण हैं। हनूमान् ने जब लंका दहन किया तब रावण उन पर बहुत कुपित हुआ। परन्तु विभीषण ने रावण से दूत का अवध्य होना बतलाकर हनूमान् को मुक्त करवा दिया। महाभारत में भी ऐसे ही कई उदाहरण पाये जाते हैं।

बौधायन, मनु और याज्ञवल्क्य आदि ने नियम बना दिये हैं कि किन शस्त्रों से लड़ना चाहिए, किन्हें मारना चाहिए और किन्हें न मारना चाहिए। इन नियमों से न्याय, विवेक और दया का भाव खूब झलकता है। देखिए—

न कूटैरायुधैहन्याद्युध्यमानो रणे रिपून्।
न काणिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलिततोजनैः॥
न च हन्यात्स्थलारूढ़ं न क्लीवं न कृताञ्जलिम्।
न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्॥
न सुप्तं न विसत्नाहं न नग्नं न निरायुधम्।
नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्॥

मनु॰, अ॰ ७, श्लो॰ ९१–९३

याज्ञवल्क्य भी कहते हैं—

तवाहं वादिनं क्लीवं निर्हेतिं परसंगतम्।
न हन्याद्विनिवृत्तञ्च युद्धप्रेक्षणकादिकम्॥