पृष्ठ:अतीत-स्मृति.pdf/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८२
अतीत-स्मृति
 


डाक्टर गिरीन्द्रनाथ ने भी किया है। जिस श्लोक के आधार पर दो वाग्भट माने गये हैं उसका अर्थ ठीक नहीं किया गया। वह श्लोक अष्टाङ्गहृदय के अन्त में है। यथा-

आष्टाङ्गवैद्यकमहोदधिमन्थनेन
योऽष्टाङ्गसङ्ग्रहमहामृतपशि रातः।
तस्मादनल्पफलमल्पसमुद्यमानां
प्रीत्यर्थमेतदुदितं पृथगेव तन्त्रम्।

इसी की व्याख्या करते हुए गिरोन्द्र बाबू लिखते हैं- In the Uttarsthan, Bagbhat, the younger, distinctly states that his compendium is based on the compilation of Bagbhata, the elder."

अर्थात् द्वितीय वाग्भट साफ़ साफ़ कहता है कि उसने प्रथम वाग्भट के संग्रह के आधार पर अष्टाङ्गहृदय का सङ्कलन किया।

पर श्लोक का अर्थ यह नहीं है। अर्थ यह है कि आयुर्वेद के अष्टाङ्ग-भाग-रूप महासमुद्र को मथ कर आष्टाङ्गसंग्रह-रूप से जो महा अमृत मैंने पाया है उसी से सामग्री लेकर मैंने बहु-फल के दाता इस पृथक् प्रन्थ की रचना, अल्प परिश्रम करने वालों की प्रीति के लिए, की है। *[१] अतएव दो वाग्भटों की कल्पना निराधार है। दोनों ग्रन्थों का कर्त्ता बौद्ध-धर्मावलम्बी था। बुद्ध,


  1. * बैँगला लेख के लेखक नियोगी महाशय ने डाक्टर गिरीन्द्रनाथ के किये हुए अर्थ में जो त्रुटि दिखाई है वह ठीक है। पर अनल्प का अर्थ "अल्प" नहीं, अल्प का उलटा अर्थात् बहुत है।