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प्राचीन भारत में जहाज़
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(ऋग्वेद, तृतीय अध्याय, सूक्त ४६, ऋक् ८)

अर्थात्-तुम लोगों का आकाश से भी अधिक विस्तीर्ण यान, समुद्र के किनारे, मौजूद है भूमि पर रथ मौजूद हैं। साथ ही सोमरस तुम्हारे यज्ञ-कार्य के लिये विद्यमान है। यहाँ पर "अरित्र" शब्द का अर्थ है-नाव का डांड़"।

ऋग्वेद् (१-११६-५) और वाजसनेयी संहिता में एक सौ पतवारों वाले जलयान (नौका) का वर्णन है। (नौ) अर्थात् नौका का उल्लेख अरित्र-परण नाम से किया गया है। ऋग्वेद के दो सूक्तों (१-४६-८ और २-१८-१) में "अरित्र" का प्रयोग दूसरे अर्थ में भी किया गया है।

"नौ" शब्द ऋग्वेद में और अन्यत्र भी नौका या जहाज़ के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। बहुत जगहों में "न" या "नौका" का प्रयोग नदी पार करने ही के लिए किया गया है। यद्यपि गंगा-यमुना के सदृश बड़ी बड़ी नदियां पार करने के लिए बड़ी बड़ी नावों की ज़रूरत पड़ती थी, तथापि जहाज़ों का विशेष प्रयोग न होता था। "नौ" शब्द से लकड़ी की बनी हुई सब प्रकार की नौकायें समझी जाती थी। विलसन साहेब कहते है कि वैदिक युग में समुद्रगामी जहाज़ों का विशेष उल्लेख नहीं पाया जाता। यहां तक कि जहान के मस्तूल और पाल आदि उपकरणों का भी कोई वर्णन नहीं। उस समय जहाज़ों और नावों का एक मात्र आधार पतवार हो था। किन्तु उनकी यह बात हम किसी प्रकार स्वीकार नही कर सकते। वैदिक युग में सामुद्रिक व्यवसाय होता था।