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प्राचीन भारत में जहाज़
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की थी। वैदिक युग के बाद के युग में मनु-संहिता में भी हम देखते हैं कि उस समय भी भारतवासी देश-देशान्तरों को जाकर वहां व्यवसाय-वाणिज्य करते थे। मनु के चार श्लोकों से तो समुद्रयात्रा का भली भांति प्रतिपादन होता है। इस सम्बन्ध में मनुस्मृति के कुछ श्लोक नीचे दिये जाते हैं-

सारासारञ्च भाण्डानां देशानाञ्च गुणागुणान्।
लाभालाभञ्च पण्यानां पशूनां परिवर्द्धनम्॥
भृत्यानाञ्च भृर्ति विद्यात् भाषाश्च विविधा नृणाम्।
द्रव्याणां स्थानयोगाँश्च क्रयविक्रयमेव यः॥
नवम अध्याय-३३१, ३३२
समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिनः
स्थापयन्ति तु यां वृत्तिं सा तत्राधिगमं प्रति॥
(अष्टम अध्याय-१५७)
दोर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं ततो भवेत्।
नदीतीरेषु तद्विद्यात् समुद्रे नास्ति लक्षणम्॥
(अष्टम अध्याय-४०६)
क्रयविक्रयमध्यानं मक्तञ्च सपरिव्ययम्।
योगक्षेमञ्च सम्प्रेक्ष्य वणिजो दापयेत् करान्॥
(सप्तम् अध्याय-१२०)
पञ्चाशद्भाग आदेयो राजा पशुहिरण्ययोः।
धान्यानामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा॥
(सप्तम अध्याय-१३०)