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अतीत स्मृति
 


खा गया। पर इस विनाश के विषय में विशेष शोक करने की ज़रूरत नहीं। क्योंकि जीर्ण होने पर सभी वस्तुओं का नाश अवश्यम्भावी है। परंतु जो इमारतें धर्मान्धों और बर्बर विदेशियों ने धर्मान्धता अथवा उत्पीड़न की प्रेरणा से ही नष्ट कर दी उनके असमय-नाश का विचार करके अवश्य ही शोक होता है। प्राचीन काल में तक्षशिला नामक नगरी बड़ी उन्नत अवस्था मे थी। वह लक्ष्मी की लीला-भूमि थी। वह विद्वानों का विहार-स्थल थी। बड़े बड़े प्रतापी नरेशों का प्रभुता-निकेतन थी। उसका आयतन बहुत विस्तृत था। कई नये नये नगर वहाँ क्स गये थे। कई पुराने नगर उजड़ गये थे। चिन्हों से जान पड़ता है कि ईसा के पांचवे शतक तक तक्षशिला-नगरी विद्यमान थी। तब तक भी वहाँ अनेक अभ्रंकष प्रासाद, स्तूप, विहार आदि उस के वैभव की घोषणा उच्च स्वर से कर रहे थे। अकस्मात् उस पर हूणों ने चढ़ाई कर दी। वहां के तत्कालीन अधीश्वर की हार हुई। विजयी हूणों ने उसे खूब लूटा। पर इतने से भी उनकी तृप्ति न हुई। उन्होंने उसे जला कर खाक ही कर दिया। जो अंश खाक हो जाने से बचा वह उजड़ गया। उस पर जङ्गल उग आया। धीरे-धीरे भग्नांश पृथ्वी के पेट के भीतर दब गये।

आरकियोलाजीकल महकमे ने अब तक्षशिला के खंडहर खोद कर उन टूटी-फूटी इमारतों को बाहर निकालना शुरू किया है। यह काम कई सालों से जारी है। और अब तक जो भग्नांश खोद निकाले गये हैं और उनसे जो चीजें प्राप्त हुई हैं उनका