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तक्षशिला की कुछ प्राचीन इमारतें
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दे रक्खी थी उनकी भी मूर्त्तियां मिली हैं। जिन धार्म्मिक बौद्धों ने अपने अपने नाम से स्तूप बनवाये थे उनके खुदवाये हुए, खरोष्ठी लिपि मे, कई अभिलेख भी वहाँ मिले हैं। वे कुछ कुछ इस प्रकार के हैं-

"बुद्धरच्छितस भिक्षुस दनमुखो"

अर्थात् भिक्षु बुद्धरक्षित का दान किया हुआ।

पुरातत्वज्ञों का अनुमान था कि ३०० ईसवी में ही खरोष्ठी लिपि का रवाज भारत से उठ गया था। पर यह बात इन अभिलेखो से गलत साबित हो गई, क्योंकि वे चौथी या पाँचवीं सदी के हैं। इससे ज्ञात हुआ कि और भी सौ दो सो वर्ष तक इस लिपि का रवाज भारत के पश्चिमोत्तर भाग में था।

खोदने से यहाँ अनेक प्राचीन सिक्के, मिट्टी के बर्तन और तांबे के अरधे, चमचे, जंज़ीरें और कील-कांटे आदि निकले है। सोने की भी कुछ चीजें प्राप्त हुई हैं। मिट्टी के एक बर्तन के भीतर एक अधजली पुस्तक भी मिली है। वह भोज-पत्र पर लिखी हुई है। संस्कृत भाषा में है। बौद्धधर्म-विषय का कोई अन्य मालूम होता है। प्रायः बसन्त-तिलकवृत्त में है। खेद है, इसका एक पृष्ट भी पूर्ण नहीं। स्तूपों में अस्थि-भस्म भी मिली है। मालूम होता है, कितने ही छोटे छोटे स्तूपों के भीतर अस्थि-भस्म रक्खी गई थी, क्योंकि रखने की जगह तो बनी हुई है, पर अस्थिगर्भ डिब्बे या बक्स नहीं मिले। वे या तो नष्ट हो गये या निकाल लिये गये। स्तूप नम्बर ११ में एक छतरीदार, ३ फुट ८ इंच