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अतीत-स्मृति
 


है। अतएव यह बात अखण्डनीय सत्य है कि ज़ेन्द भाषा के हिन्दव शब्द ही ने हिब्रू भाषा में हन्द् रूप धारण किया। इसकी पुष्टि में अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं।

पाठक, आपने महाजनों की मुँड़िया लिपि देखी है। न देखी होगी तो उसकी विशिष्टता से आप ज़रूर हो वाक़िफ होंगे। उसमें आकार, इकार, उकार आदि की मात्रायें नहीं होतीं। इससे बाबा, बीबी, बूबू, बोबो सब एक ही तरह लिखे जाते हैं। अपेक्षित शब्द पढ़ने वाले अपनी बुद्धि से पढ़ लेते हैं। इसी कारण कभी कभी मामा की मामी, किश्ती की कुश्ती, घड़ा का घोड़ा और "अजमेर गये" का "आज मर गये" हो जाता है। हिब्रू भाषा भी ऐसी ही है। उसमें भी इकार, उकार, आदि नहीं है। वह दाहने हाथ की तरफ़ से लिखी जाती है। उसकी पुत्री अरबी और पौत्री फ़ारसी भाषा है। इन दोनों भाषाओं में ज़ेर, ज़बर और पेश आदि चिन्हों के प्रयोग द्वारा वैय्याकरणों ने अकार, इकार और उकार का उच्चाण किसी प्रकार निश्चित कर लिया है। पर हिब्रू में यह बात अब तक नहीं हुई। उसकी वर्णमाला में सिर्फ दो ही एक स्वर हैं, सो भी अपरिस्फुट। चिन्हों के द्वारा अनेक शब्दों का उच्चारण होता है। इससे क्या होता है कि बहुत स्थलों में इकार का लोप हो जाता है। देखिए-

जेन्द। हिब्रू।
किरियाद् .. करयोयद्
शिकिना ... सकना